यह दीप अकेला
( कवी - अज्ञेय )
परिचय
- यह दीप अकेला कविता , अज्ञेय की पुस्तक बावरा अहेरी
से ली गई है |
- इस कविता मे दीपक को मनुष्य का प्रतीक बताते हुए , मनुष्य की व्यक्तिगत सत्ता को सामाजिक सत्ता मे जोड़ने का संदेश दिया गया
है |
यह दीप अकेला
यह दीप अकेला स्नेह भरा है
गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
यह जन है-गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गाएगा?
पनडुब्बा-ये मोती सच्चे फिर कौन कृती लाएगा?
यह समिधा-ऐसी आग हठीला बिरला सुलगाएगा।
यह अद्वितीय-यह मेरा यह मैं स्वयं विसर्जित- यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ प्रसिद्ध कवि अज्ञेय द्वारा रचित कविता ‘यह दीप अकेला’ से ली गई हैं | इस कविता मे कवि एक ऐसे दीप की बात करता है जो स्नेह से भरा है और गर्व से भरा है और इस दीप (व्यक्ति) को पंक्ति (समाज) मे शामिल करने की बात कवि कर रहा है |
- जिस प्रकार एक दीपक (तेल से भरा) सीधी लौ के साथ जलता रहता है और अपने प्रकाश से अंधेरे को दूर करता है |
- उसी प्रकार मनुष्य अकेला होता है और उसे पता होता है की उसमे शक्तियां हैं उसमे गुण हैं और वह उन गुणों पर गर्व करता हुआ इतराता है|
- कवि कहते हैं की यदि एक दीपक को पंक्ति मे जोड़ दिया जाए तो प्रकाश मे वृद्धि होगी, ठीक उसी प्रकार एक मनुष्य को समाज मे जोड़ दिया जाए तो समाज के सभी लोगों को उस मनुष्य के गुणों का लाभ होगा |
- यह वह व्यक्ति हैं जिसे समाज मे जोड़ा बहुत जरूरी है | यह वह गोताखोर है जो समुद्र मे डूब कर मोती निकालता है|
- यह अपने आप मे अकेला ऐसा गोताखोर है जो समुद्र की गहराई मे जाकर सच्चे मोती ढूंढकर लाता है | इसे भी साथ ले लो वरना मोती ढूंढकर कौन लाएगा , अर्थात इसे समाज का अंग बना लेने से समाज को फायदा होगा |
- यह तो उस हवन की लकड़ी के समान है , जो जब जलती है तो बहुतों को लाभ देती है | तो ऐसी अग्नि कोई हठीला ही सुलगाएगा |
- उसके जैसा कोई नहीं है , इसलिए इससे समाज का विकास हो सकेगा |
यह मधु है-स्वयं काल की मौना का युग-संचय,
यह गोरस-जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय,
यह अंकुर-फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय,
यह प्रकृत, स्वयंभू, ब्रह्म, अयुतः इसको भी शक्ति को दे दो।
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा है गर्व भरा मदमाता,
पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ प्रसिद्ध कवि अज्ञेय द्वारा रचित कविता ‘यह दीप अकेला’ से ली गई हैं | इस कविता मे कवि एक ऐसे दीप की बात करता है जो स्नेह से भरा है और गर्व से भरा है और इस दीप (व्यक्ति) को पंक्ति (समाज) मे शामिल करने की बात कवि कर रहा है |
- शहद धीरे धीरे बनता है , इसे बनने मे समय लगता है , और समय की टोकरी मे यह धीरे धीरे इकट्ठा होता है |
- कवि मनुष्य की तुलना करते हुए कहता है कि मनुष्य मधु और गौरस के रूप में मधुरता और पवित्रा के समान सुकून देने वाला प्रेम से भरा हुआ और दूसरों का उपकार करने वाला है|
- और यह मनुष्य अंकुर की तरह स्वयं पैदा होकर विशाल सूरज को बिना डरे ताकता है अर्थात वह वीर है वह स्वयं ब्रह्मा का रूप है हम सब ईश्वर का अंश है
यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
वह पीड़ा, जिस की गहराई को स्वयं उसी ने नापा;
कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कडुवे तम में
यह सदा द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
उल्लंब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा।
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय, इसको भक्ति को दे दो-
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा है
गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ प्रसिद्ध कवि अज्ञेय द्वारा रचित कविता ‘यह दीप अकेला’ से ली गई हैं | इस कविता मे कवि एक ऐसे दीप की बात करता है जो स्नेह से भरा है और गर्व से भरा है और इस दीप (व्यक्ति) को पंक्ति (समाज) मे शामिल करने की बात कवि कर रहा है |
- इन पंक्तियों में भी दीप की तुलना मनुष्य से की गई है उस व्यक्ति से जो परोपकारी है और उसने से भरा है
- और वह अपने लघु स्वरूप से डरता नहीं है जिस प्रकार दीपक आग को धारण किए रहता है और स्वयं को जलाता है
- उसके बावजूद वह जलता रहता है और दूसरों को प्रकाश देता है और जागरूक रहता है और ऐसा मनुष्य जिसमें स्नेह है जो ज्ञानी है
- वह भी दीप की तरह है जो जब ऐसा व्यक्ति सब समाज से जुड़ता है तो समाज का विकास होता है
विशेष :-
- दीपक को मनुष्य का प्रतीक बताते हुए मनुष्य की व्यक्तिगत सत्ता को सामाजिक सत्ता मे जोड़ने की बात कही गई है |
- यह एक छंद मुक्त कविता है |
- तत्समयुक्त खड़ी बोली का सुंदर प्रयोग किया गया है |
- अनेक स्थानों पर अनुप्रास तथा उपमा अलंकारों का प्रयोग किया गया है |
- इस कविता मे लयात्मकता है |
कविता : मैं ने देखा एक बूँद
कवि - अज्ञेय
परिचय :-
- इस कविता मे अज्ञेय जी ने समुद्र से अलग होती एक बूंद की क्षणभंगुरता की व्याख्या की है |
- इस कविता ने अज्ञेय जी ने एक क्षण के महत्व को समझाने का प्रयास किया है और यह क्षणभंगुरता समुद्र की नहीं बूँद की है |
मैंने देखा, एक बूँद
मैंने देखा
एक बूँद सहसा
उछली सागर के झाग से;
रंग गई क्षणभर
ढलते सूरज की आग से।
सूने विराट् के सम्मुख
हर आलोक-छुआ अपनापन
है उन्मोचन नश्वरता के दाग से !
प्रसंग : प्रस्तुत लघु कविता हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग 2 मे संकलित हिन्दी के प्रसिद्ध कवि अज्ञेय जी द्वारा रचित है | इस कविता मे ने अज्ञेय जी ने एक क्षण के महत्व को समझाने का प्रयास किया है | और यह क्षणभंगुरता समुद्र की नहीं बूँद की है |
व्याख्या :
- मनुष्य अपने क्षणभर के जीवन को भी बूँद की तरह सार्थकता प्रदान कर सकता है , मनुष्य का प्रत्येक क्षण कीमती है |
- हर क्षण के मूल्य को मनुष्य को समझना चाहिए |
- बूँद का उदाहरण देते हुए कवि बताते हैं एक क्षण भी मनुष्य के जीवन को बदल सकता है |
- कवि कहता हैं की एक बूँद का सागर से अलग होने का अर्थ है की अब उसका नष्ट होना तय है |
- बूँद सागर से अलग होकर स्वयं नष्ट हो जाती है परंतु सागर कभी नष्ट नहीं होता |
- सागर की तुलना ब्रह्मा से की गई है |
- सागर से बूँद रूपी जीव थोड़े समय के लिए अलग होता है और कुछ रंगीन पल व्यतीत कर मुक्ति को प्राप्त हो जाता है |
विशेष :-
- इस कविता मे कवि ने एक क्षण के महत्व को समझने का प्रयास किया है |
- खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है
- इस कविता मे संगितात्मकता है
- इस कविता मे बूँद मनुष्य का प्रतीक है
- कवि की भाषा भावनात्मक है
- कवि ने अलंकारों का बहुत सुंदर प्रयोग किया गया है
- यह एक छंदमुक्त प्रयोगवादी कविता है